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मैं बंजारे का छोरा,
मुझको मत मारो |
भूक और गरिबी,
पुश्त-पुश्त की दरिद्री |
अनबन और झगड़ा ,
किस्मत ने है रगडा |
संकट था मोटा तगड़ा ,
छोटा था बासी रोटी का टुकड़ा |
सन बहत्तर का काल था ,
सुखी धरती ,सूखे खेत ,
सुखे इंसानों के पेट |
सुखे झरने ,सुखी नदियाँ ,
सुखे तालाब ,कुओं पर बैठा ,
कला - कला सेठ |
मैं बंजारे का छोरा,
मुझको मत मारो |
और फिर एक दिन
धरति मुस्काई ,
वर्षा ने की उसकी सिंचाई |
हरी धरति हरा पेड़ ,
महीनों बाद भरा पेट |
हम अकाल में थे ,
भूके लेट |
और काल में थे ,
खाली प्लेट |
मैं बंजारे का छोरा,
मुझको मत मारो |
लह- लहाते अरहर के पौधे ,
धनी किसान के बढ़ा रहे थे औधे |
तोड़े जब सपा- सप ,
झपा- झप , अरहर के पौधे |
गपा-गप ,कच-कच ,
मच-मच ,खाएं तब ,
मुट्ठी भर- भर के औधे |
देखा जब उसने ,
भूक मिटाते मुझको |
धपा-धप ,रप-रप ,
गलों पर पढ़े तमाचे चप-चप ,
जब हाथों और पैरों से मिली सबर ,
तब मुह से ली मेरी खबर |
कोन हैं तू ?कोन जाति का ?
कोन हैं तेरा बाप?
किसका हैं तू शाप ?
अच्छा -खासा तू नर !
खा गया अरहर ,रे जानवर !
मैं बंजारे का छोरा,
मुझको मत मारो |
मैं गुलाब, मैं बंजारा ,
पिता सूर्यभान ,मैं उसका किनारा |
मैं पांडूरने टांडे का छोरा |
हम भूक से हारे ,
घर ले जाने हैं ,
मुट्ठी भर दाने |
चल निकल शाने ,
तोड़ दुँगा पैर तो बंद हो जायेंगे
तेरे आने जाने |
मैं दौड़ा पगडंडियों के सहारे,
जबतक ओझल न हो जायें उसके नारे |
खोली मुट्ठी अरहर खाने लगा सारे |
( main banjara hun ) kavita sankaln se
chndrlok prkashna, kanpur
sunil jadhav ,nanded