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बंजारा गोरमाटी

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शनिवार, 4 मई 2013

एक बंजारन.....

शहर के कोंक्रेट सीमेंट इट चुने
और सभ्य इंसानों के जंगलो से दूर
उस निशब्द ,कभी-कभी कलकल
शहर की गंदगियों को ढोती
अस्वच्छता को अपने में समायें
मंजिल की और जाती नदियाँ पार
एक जंगल घना हैं
शेर ,हिरनी ,मोर ,खरगोश
लोमड़ी ,बिल्ली ,गाय
सागुन ,नीम ,बबुल
चन्दन ,पलाश ,शीशम ,नदी ,झरनों
के सौन्दर्य से युक्त |

चारो और से घिरा हैं
एक टांडा घने ,गहन घुप्प ,
दिन में अँधेरा करने वाले जंगल से  ,
इसी दिवा अँधेरे में
अपनी टूटी-फूटी झोपडी से
निकलती हैं एक बंजारन
सुखी लकड़ियों के गट्ठर के लिए |
वह सर पर रखे गाले पर
जवार या बाजरे की रोटी में
हरे मीर्च को कूट कर बनाई गई चटनी
और एक प्याज को
फटे पुराने वस्त्र की पोटली में लिए 
एक हाथ में दराती या कुल्हाड़ी
दूसरे हाथ में रस्सी को लपेटे
बंजारा गीत गाते –गुनगुनाते
काँटों ,पथरीले पगडण्डी से
जाती हैं जंगल में
सुखी लकड़ियों के गट्ठर के लिए |

वह गीत गुनगुनाती हैं
कभी दुःख और दर्द से भरा
तो कभी जिन्दगी में
मिले सुख भरे क्षणिक पलों
के आनंददाई गीत को
हर एक लकड़ी वह चुनती हैं
मानो वह छोटी-छोटी खुशियाँ चुन रही हो
लगातार चलने ,लकड़ियाँ ढूंडने से
उसका गोरा तन पसीने से तर हो जाता हैं
माथे से होते हुए पसीने की बूंद
जब चेहरे से सूखे ओंठो पर आती हैं
वह वहीं समाहित हो जाती हैं
मानो तनिक प्यास बुझा जाती हो  |

जब सूर्य माथे पर चढ़ आता हैं
कुछ समय के लिए धुप भी बढ़ जाती हैं
पर ग्रीष्म में पत्ते झड़ जाने से
पेड़ पत्तहिन् ठुट बन जाते हैं
सिवाय कहीं-कहीं नीम के
जब तैयार होता हैं
उसकी जान से भी बोझीला
सुखी लकड़ियों का गट्ठर
कसकर  बांधती हैं वह
हाथ को लपेटे रस्सी से
और एक लम्बीं साँस
इत्मिनान की छोड़ते हुए
पेट में मचे घमासान को
सर पर रखी पोटली को खोलकर
रोटी ,हरी मीर्च की चटनी और प्याज
के शाही भोज से शांत करती हैं
जंगल के झरने से होते हुए
प्यास बुझाती वह लौटती हैं
लकड़ी का सुखा गट्ठर सर पर लिए
उसे याद अता हैं
घर पर दूध पीता भूखा बच्चा
बूढी अंधी माँ और
बुढा बा जो रात भर खासता हैं
टूटी हुयी खटिया पर
अपनी विवशता पर लाचार आंसु बहाता हैं
सोंचता हैं अपनी जवानी के दिन
रोज मांगता हैं ईश्वर से खुद के ही
मौत की कामना
पर वह फिर सोचता हैं
अब ईश्वर भी बुढा हो गया होगा
यह प्रकृति ही हमारा ईश्वर हैं
जो दो जून की रोटी हमें देती हैं |

वह बिना रुके बिना थके
लगातार चली जाती हैं
पगडंडियों से जंगल के उस और से
गुजरने वाली सडक जो शहर जाती हैं
उसे  फिर याद आता हैं
बच्चा ,माँ ,बा
टूटी-फूटी झोपडी
उख का छत
अरहर और कपास के सूखे पौधो से बनी टाटी
गौबर तथा मिटटी के मिश्रण से लीपकर
बनी दीवारें
एक छोटा चौकट
चौकट पर लगा दरवाजा
बूढ़े बा और अंधी माँ की तरहा
झुका हुआ झोपडी का बच्चा
प्रतीक्षा करता हैं
गोबर से लिपे आंगन में खड़ा
शहर से आनेवाली कोलतार की
ओर....
वह बंजारन लम्बे-लम्बे डग भरती हैं
शहर की ओर..... |














डॉ.सुनील जाधव ,नांदेड